माँ-हरविंदर सिंह 'ग़ुलाम'

माँ

हरविंदर सिंह 'ग़ुलाम'

सुना देवताओं के बारे में अक्सर
मगर देव कोई कभी भी न आया
लगी ठोकरें जब ज़माने की मुझको
हर बार माँ ने गले से लगाया

कभी भूखे रहकर कभी प्यासे रहकर
करती रही वो दुआऐं हमेशा
मेरे ही उज्ज्वल भविष्य की कामना से
हर इक दर पर जा माथा निवाया

लड़ी वो हर इक से मेरे लिए ही
मैं नादान था और समझ कुछ न पाया
नज़रें लगे न कहीं ज़माने की मुझको
लौ से दिए की काला टीका लगाया

मासूम थी वो बड़ी नासमझ थी
ममता ने था उसको पागल बनाया
अपने ही लल्ला में देखे कैन्हया
माखन तभी तो चोरी चोरी खिलाया

भगवान का रूप कहती है दुनियाँ
मगर मैंने भगवान देखा नहीं है
आकर साकार क्या मैं क्या जानूँ
माँ में ही मैंने तो भगवान पाया

कहती है सारी ही दुनियाँ 'ग़ुलाम'
मगर एक इकलौती माँ ही है यारों
जिसने इस सिरफिरे दिलजले को
हर बार सरताज कह कर बुलाया

हरविंदर सिंह 'ग़ुलाम'
पटियाला, पंजाब
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