प्रीत न करियो कोई

 "प्रीत न करियो कोई"

                             भावना ठाकर 'भावु' बेंगलोर
एक प्रेम कहानी का मुख्य किरदार थी वो "नाम सिया" चिड़ीया सी चहचहाती गुड़िया की आवाज़ रुक गई, थम गई, कोई नहीं जानता कहाँ खो गई। गाँव के ज़मीनदार की रुपवती बेटी थी सिया। अठारहवां साल बैठा ही था की मुखिया के ही खेत में काम करने वाले मोहन के बीस साल के बेटे अर्जुन को दिल दे बैठी। जिस घर में बेटी को ऊँची आवाज़ में बात करना भी गुनाह समझा जाता हो वहाँ प्यार, इश्क, मोहब्बत वो भी बेटी करें? वो भी अपने ही खेत में मजदूरी करने वाले से। मुखिया को जीवन में दो ही चीज़ प्यारी थी बेटी सिया और अपनी इज्ज़त। पर बिटिया नादान थी, प्यार कहाँ जात-पात, ऊँच-नीच देखता है। एक उम्र होती है जिसमें बस हो जाता है। जवानी दीवानी होती है साहब। दुन्यवी रवायतों से अन्जान अपनी चाहत को परवाज़ देते दो दिल एक दूसरे के संग प्रीत के धागे से ऐसे बंध कर चाहत को परवान चढ़ा रहे थे कि दोनों के लिए बीच खड़ी असमानता की गहरी खाई दोनों के लिए बेमानी हो गई। मोहब्बत दिन दुगनी, रात चोगुनी बढ़ रही थी। एक साल तक खेतों में छुप छुपकर मिलने का सिलसिला चलता रहा। बारिश के बाद गेहूँ की फ़सलें दुई माले सी ऊँची लहलहा रही थी, आज शाम ढ़लते ही पूरे खेत का मुआयना करने मुखिया खुद निकला था। एक चास के पीछे हल्की सी गतिविधि को अनुभवी कानों ने सुन लिया कदम थम गए और अपनी ही तनया की हरि चुनर की हल्की दिख रही कोर को बाप की आँखों ने पहचान लिया। इज्ज़त और अहं के आगे पिता का प्यार हार गया। दूर हँसिए से घास काट रहे कलवा की ओर देखकर एक इशारा हुआ। नहर में रक्त रंजीत पानी हिलौरे ले रहा था।

मुखिया को पूछने की किसी में हिम्मत नहीं कि बिटिया क्यूँ दिख नहीं रही। अर्जुन के पिता मुखिया का नौकर मोहन सबको कहता है अर्जुन शहर चला गया।

पर लोग कहते है रात को खेत के उस तरफ़ से गुज़रो तो सुबकती हुई दो आवाज़ें सुनाई देती है एक लड़के की, एक लड़की की, जो कहती रहती है प्रीत न करियो कोई। पूरा गाँव मौन है उन दो किरदार की तरह पर सबके दिल से वही आवाज़ आती है, इस गाँव में प्रीत न करियो कोई।

भावना ठाकर 'भावु' बेंगलोर


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