पता नहीं क्यों
कविता –पता नहीं क्यों
मुझे घर का कोइ एक
सख्श याद नहीं आता।
मुझे याद आता है वो भाव,
वो सुखद एहसास
जो पापा के डांट में मिलती है
जो मां के फिक्र में झलकती है
वो भाव, वो स्वाद
जब पेट से जादा
मन भर जाता है
जो सिर्फ मां के हाथों की
पकवानों से ही आता है
पता नहीं क्यों
मुझे घर की फुलवारी
नहीं याद आती
जिसकी भिन्नी खुशबु
सबका मन मोह लेती है
मुझे याद आता है
घर का आंगन
जहा पछीयां
आती तो है पर
मेरा कलरव नहीं पाती
पाती हैं तो सिर्फ वो सन्नाटा
जिसमें मेरी हंसी की टीश
गुंजती हो
पता नहीं क्यों
मुझे घर का
आलीशान बैठक
याद नहीं आता
याद आता है
मेरे कमरे की तन्हाई
जहां आज भी मां
सिर्फ मुझे अनुभव
करने के लिए
घंटो वक्त बीताती है।
याद आता है
वो कोलाहल भरी यादें
वो उमस भरी रातें
जो मां के बाहों में
पापा के शीतल छांव में,
ज्वर से तपते हुए
युुहीं गुजर गए थे
पता नहीं क्यों
मुझे घर के पर्दो से जादा
मां के आंचल का
रंग भाता है
पता नहीं क्यों
कुल्हङ की चाय से जादा
मां की लोरी याद आती है
पता नहीं क्यों
घर छोड़कर आना होता है
फिर से बुला लो
किसी बहाने मां
मुझे घर से जादा
तेरा याद आता है।