देवेन्द्र आर्य की कविताएं
1. कवि नहीं कविता बड़ी हो
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इस तरह तू लिख
कि लिख के कवि नहीं कविता बड़ी हो
अपने बूते पर खड़ी हो
जो ज़माने से लड़ी हो
ऐसी भाषा
जैसी भाषा भीड़ के पल्ले पड़ी हो
इस तरह तू लिख कि लिख के कवि नहीं
कविता बड़ी हो
ह से हाथी
ह से हौदा
क़द नहीं क़ीमत का सौदा
अपने खेतों पर लिखा है हमने अमरीकी मसौदा
ऐसी क्या दौलत कि बच्चू प्यार में भी हड़बड़ी हो
धूप में सीझा हो सावन
भूख के आगे पसावन
दूघ सा गाढ़ा पसीना
और सपनों का जमावन
हर घड़ी लगती हो जैसे बस यही अंतिम घड़ी हो
लिख कि धरती मुस्कुराए
दुख का सीना चिटक जाए
रक्त में स्नान करने वाला
यादों में नहाए
प्यास के सहरा में जैसे कोई शीतल बावड़ी हो
इस तरह तू लिख कि लिख के कवि नहीं
कविता बड़ी हो
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(दो)
21 वीं सदी का आल्हा
दरवाज़े पर खड़ी टोयोटा
और पिछवाड़े जर्सी गाय
दो कौड़ी की हुई ज़िंदगी, छः अंकों में हो गई आय
घर फोड़नी किरनें हैं शातिर
घुसी चली आएं मुतवातिर
टाइल मोबाइल के युग में अम्मा झींकें चश्मा ख़ातिर
बचपन के गुड ब्वॉय करे हैं बूढ़ी बूढ़ा को गुड बाय
अबे कबिरवा भी होता तो बस जाता अमरीका जाए
वो तो सरकारी बंदा है
लेकिन जो है मुक्त क्षेत्र में उसका क्यों तिरछा कंधा है
उंगलीगीरी ही धंधा है
आलोचक माने खुरपेंची घर का भेदी लंका ढाय
कौन चूतिया पाल के रक्खे अपने आंगन कुटी छवाय
काहें खड़ी उदास जमालो
शब्दों का बीमा करवा लो
अच्छी क़ीमत पर बिकते हैं राम भरोसे मुर्दे पालो
बंटते-बंटते कटते-कटते
सिकुड़ के दिल हो गया निकाय
सुख-दुख डिब्बा बंद हो गए रिश्ते हुए मुतन्नी चाय
बहुत हुआ तो खुरपी होगी
भूख कुल्हाड़ी कभी नहीं
चुल्लू दो चुल्लू भर होगी प्यास पहाड़ी कभी नहीं
पेड़ बचाएं बुरी नज़र से लगे न इनको सदी की हाय
विणा वादनी जाप करे हैं जय लक्ष्मी जी सदा सहाय
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(तीन)
दो रुपये का आज
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बाप न मारी मेंढकी बेटा तीरंदाज़
सुनो सन्नाटे की आवाज़
बाहर रह कर शामिल होना
शो केसों में ख़्वाब संजोना
कथा-कहानी हुई सोखैती
कविताओं में जादू-टोना
फांक-फांक नारंगी हो गयी छिलके-छिलके प्याज
सुनो सन्नाटे की आवाज़
पूंछ में पगहा मुंह पर पैना
खोटी नज़रें नाम सुनयना
गंगा तट पर काशी प्यासी
दिल्ली हो गई भिंड मुरैना
बाबू साहब कमा के चिक्कन मूल से ज़्यादा ब्याज
सुनो सन्नाटे की आवाज़
पानी पर दीवार चलाना
बिन ईंधन के दाल गलाना
कोई सीखे बाज़ारों से
नज़र में रह कर नज़र न आना
बिना पेड़ पानी चूल्हे के चलता नहीं समाज
सुनो सन्नाटे की आवाज़
अभी समय है अभी बचा लो
सोचो कोई राह निकालो
यह कहना बेमानी होगा
आग लगा कर दूर जमालो
दस रुपये के कल से बेहतर दो रुपये का आज
सुनो सन्नाटे की आवाज़
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(चार)
देखा जाएगा
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होगा जो भी होगा साला
देखा जाएगा
क्या कर लेगा ऊपरवाला, देखा जाएगा
डर जीवन की पहली और अंतिम कठिनाई है
मौत को लेकर सौदेबाज़ी होती आई है
करो कलेजा कड़ा
आंख में आंखें डाल कहो
ये लो अपनी कंठी माला, देखा जाएगा
हमां शुमां के लिए ज़िंदगी पल्लेदारी है
जीवन पर बगुला भक्तों की ठेकेदारी है
मांग के ही खाना है
खोद के ही पीना है जब
दे दें हमको देश निकाला, देखा जाएगा
पुल के नीचे एक किनारे दुबकी पड़ी नदी
दुनिया दुनिया वालों से रहती है कटी कटी
सपने सावन के अंधों की भीड़ हो गए हैं
अंधों से भी कहीं उजाला देखा जाएगा ?
मरना सच है जानके भी किसने जीना छोड़ा
सच की राह में अपना टुच्चापन ही है रोड़ा
केवल ख़तरा ख़तरा चिल्लाने से बेहतर है
मार लें हम होंठों पर ताला
देखा जाएगा
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(पांच)
बसंत
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पत्नी की देह-गंध को तरसा यह बसंत
आना तो फिर आना
होठों पर बच्चों के
नींद में लिखी कोई स्वप्न-पगी गीत पंक्ति
उजली सी कोरी सी
आना तो फिर आना
शहर के किनारे उस ताल के थिरे जल में
शाम के हरेपन की आंख में अघोरी सी
फागुन रथ के आगे अक्खड़ सा तना हुआ
लगता है परशुराम का फरसा यह बसंत
अबकी आए, आए
ठहरो कुछ देर और
फ़र्ज़ है मेरा कहना
बहुत सी निगाहों में तारों की झिलमिल है
अबकी आए, आए
पत्तों का पीलापन सहलाता बैठा हूं
पथरा जाऊं कैसे फूलों का भी दिल है
काश कोई पढ़ पाता आंखों में निराला की
फिसल रही कविताओं के जैसा यह बसंत
अब मत आना बसंत
भूल गए से लगते फुटपाथों पर ठेले रेहड़ी रिक्शेवाले
जीवन का रण जैसे
अब मत आना बसंत
मन प्राणों में जीवन अमृत का घुलना भी ऐसा क्या
भूल जाए सांसों का प्रण जैसे
तुक्ष बनातीं हमको ये चटोर चिंताए
मंजरियों पर माहो सा बरसा यह बसंत
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(छः)
गर्भवती का गीत
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इधर कई दिन से बसंत मुझसे बतियाता है
सिरहाने मंजरियों के गुच्छे रख जाता है
तना तना सा पेट
बदन कुछ भारी भारी सा
डाल झुका फलदार पेड़ मन है आभारी सा
जैसे सपनों में सपनों के रंग भर गए हों
लम्बी एक उदास नदी के अंग भर गए हों
कच्ची दीवारों पर कोई चित्र बनाता है
रेशम पल्लू कभी भिंगोता कभी गारता है
बूंद बूंद भरता जाता है कुछ मेरे भीतर
फूलों के धक्के
उठती है मीठी एक लहर !
चौके में घुसने से ही उबकाई आती है
ख़ुद करती हूं सुबह शाम को दायी आती है
कभी-कभी हम कहां फंस गए
मन खिझियाता है
अब तक जो मीठा लगता था आज तिताता है
सोच सोच कर डर लगता है
कौन सम्हालेगा
इनकी देखभाल
घर आंगन
नन्हा सा बिरवा
और किसी को नहीं पता है
तुम भी चुप रहना
किसके मुंह पर इंद्र धनुष हो किसके मुंह टोना
भोर भए सपने विभोर कोई तुतलाता है
घर का कोना कोना जैसे सोहर गाता है
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(सात)
शून्य हूं मैं
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शून्य हूं मैं
मुझसे मिल कर आपकी औक़ात
कुछ नहीं तो दस गुना बढ़ जाएगी
खो गयी है ज़िद मेरी
असहाय हूं
मैं दुखों का संगठित समुदाय हूं
शब्दों की सीमाओं से हूं बेदखल
मैं हवा में तैरता अभिप्राय हूं
प्यास हूं मैं
अपनी आंखों में बसा लो तुम
बूंद के भीतर नदी भर जाएगी
खींच लेती है कटीली सादगी
प्यार ही है क़ाफ़िरों की बंदगी
अपने अपने देखने का ढंग है
पत्थरों में भी छुपी है नाज़ुकी
मौन हूं मैं
मुझको बुन लो अपने गीतों में
ज़िंदगी फिर ज़िंदगी हो जाएगी
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(8)
दो दूनी पांच
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अंजुरी में डेहरी भर प्यार भर दिया कैसे
तुमने कमरे को संसार कर दिया कैसे ?
रिश्तों का सुख हो या दुख
सुख-दुख के रिश्ते
हमने देखे हैं नंगी आंखों
आंगन से सहन तलक लूट के हज़ार ढंग
पढ़ा किए हम बेढंगी आंखों
दो दूनी पांच हुआ तो है पर कभी-कभी
तुमने यह खेल बार बार कर दिया कैसे ?
था से है तक
है से था तक जीवन फैला
संज्ञा तो वही पर क्रिया बदली
पेट वही हाथ वही
सांस वही शब्द वही
अर्थ वही, अर्थ की दिशा बदली
पलकों पर पलकों के लगातार पहरे थे
सपनों को आंखों के पार कर दिया कैसे ?
जहां तक समझता हूं
मैं नहीं समझ पाता
इतनी आसान नहीं सच्चाई
ढेले मारे
लहरें उठीं
फटी भी लेकिन
फिर आकर जुड़ जाती है काई
जीना था पी लेते नाली का पानी पर
तुमने काई पर एतबार कर लिया कैसे ?
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(नौ)
सन्न माहौल
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सन्न माहौल झनझनाता है
ट्रेन सिगनल पे खड़ी हो जैसे
चींटियां वक़्त की नज़ाकत को
हमसे बेहतर कहीं समझती हैं
ये हवाएं पढ़े-लिखों की तरह
आदमी देख कर उलझती हैं
क़ाबिलेग़ौर है ये मुस्तैदी
सर कटी लाश पड़ी हो जैसे
दो मिनट को ही आ के सुन लीजे
उसने बच्चे से अपने कहलाया
सुन के घंटी सिहर गए पर्दे
आ गए वो
कि खो गई छाया
वो मुझे इस तरह बुलाती है
उम्र में मुझसे बड़ी हो जैसे
डाक बंगले रुकेंगे और सुबह
होके उस रास्ते से गुज़रेंगे
इनको पहचान लो
ये अपने हैं
कल के घेराव में पत्रक देंगे
चांद लगता है मेरे आफ़िस की
बंद दीवाल घड़ी हो जैसे
कम से कम देखने में तेज लगें
ऐसे कुछ लोग गए थे चुन के
बात बिगड़े कि इसके पहले ही
लंच का वक़्त हो गया उनके
उसने कालर में आलपिन खोंसी
बात सीने में गड़ी हो जैसे
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(दस)
कवि हारा या कविता हारी
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कहो आर्या
अबकी बारी कवि हारा या कविता हारी ?
खेल-तमाशा अनुदित भाषा
कविता शैशव में ही रह गई
कवि जी का लग गया पचासा
जो चाहे जो भाव निकाले
कविता है या दुनियादारी
कहो आर्या
अबकी बारी कवि जीता या कविता हारी ?
माला माइक मंच गए तो किसे सुनाएं
कहां छपाएं
यार चलो लाइव हो जाएं
ग़म को थोड़ा रैलिश कर लें और मौत का जश्न मनाएं
कवि तो बच गए लेकिन लग गयी
कविता को कवि की बीमारी
तबकी वो था अबकी तुम हो
मेरी कब आएगी बारी ?
धूसर हुई सियासत लकदक
कविता लेकिन रही चकाचक
ऐसा भी होता है क्या ?
भक !
कविता ऐंठ के बोली
कवि जी पहले चुकता करो उधारी
कितने की पुड़िया बंधवाऊं ?
पूछें आलोचक-पंसारी
भइया छह फिट की दूरी से आओ लेकिन पारा-पारी
अरे आर्या अबकी बारी
कवि के सर पर धरी रह गयी जीत की
सामूहिक तैयारी
संसद से यारी का सीधा मतलब सड़कों से गद्दारी
ऐसे में कविता बेचारी !
तुमसे बेहतर कौन आर्या समझेगा कवि की लाचारी
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● देवेन्द्र आर्य
ए- 127 आवास विकास कालोनी , शाहपुर
गोरखपुर - 273006
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