Mera shringar karo kavita by vinod kumar rajak
कविता
मेंरा श्रृंगार करो
आज मैं
सूनसान सड़क
को निहार रहा था
पांच मंजिला इमारत
के छत पर खड़े हो कर
इसलिए न की मैं प्रेम में था
किसी के और इंतजार में
प्रेम का रोग वर्षों पहले
मेरे भितर से छू हो गया था
जब मेरे किसान पिता ने
सूखे बबूल के पेड़ में रस्सी डाल
फांसी लगा ली थी
गांव की हरियाली जा चुकी थी
नदी नाले भी सूखे पड़े थे
धरती दरक गई थी
दरख़्तो का रक्त सूख चुका था
अकाल के काल ने लिलाना शुरू किया था
पहले हरे भरे लहलहाते खेत-खलियान
फिर जानवरों और फिर गरीब किसानो को
पिता के जाने के बाद
परिवार समेत मैंने रूख़ किया शहर का
मेरे साथ कुछ गरीब किसान शहर आ
मजदूर में तब्दील हो गए
वर्षों बित गए मजदूरी में
परिवार ठीक-ठाक चल रहा था
पर वक़्त के मार ने मुझे वहीं
लाकर खड़ा कर दिया था
जहां मेरे पिता थे
इरादा बना लिया था
पिता के पास जाने का
तभी मेरे अन्दर आत्मा से आवाज़ आई
रूक जरा माना की कठीन समय है
महामारी का दौर हैं
जीना अब शहर में मुस्किल है
जो गांव तुम छोड़ आए थे
वहां का रूख करो
और मजदूर से फिर एक बार
किसान बन जाओ
जाओ अब तो गांव भी शहर जैसा हो गया है
पर शहर गांव नहीं
शहर तो अपने को भी बेगाना बना देता है
गांव है जो गैरों को भी अपनाता है
लौट जाओ
जहां तुम्हारा प्राण बसता है
जहां की मिट्टी में तुम्हारी पुरखों की
यादें हैं तुम भले भुल गए
पर आज भी मिट्टी तुम्हें भुला न पाई
तुम्हारा ह्रदय जानता है
गांव की मिट्टी आज भी तुम्हें
बुलाती है तुम्हारे पगो को सहलाने के लिए
हे! माटी के लाल तुम आओ और
फिर से किसान बन हलो में धार दो
और मेरा श्रृंगार करो
मैं बंजर
तब से जब से तुम गए
किसान से बनने मजदूर शहर को
कवि बिनोद कुमार रजक प्रभारी शिक्षक न्यु डुवार्स हिंदी जुनियर हाईस्कूल पोस्ट-चामुरची बानरहाट जिला-जलपाईगुड़ी राज्य-पश्चिम बंगाल 735207
शिक्षा-एम ए,बीए,बी एड ,यु जी सी नेट