कविता -रश्क- सिद्धार्थ गोरखपुरी

कविता -रश्क

कविता -रश्क- सिद्धार्थ गोरखपुरी
रश्क अंतस में पाले हुए हो हजारों
चैन की अहमियत बस तुम्हें ही पता है
बेचैनी भरा दिन कैसे है कटता?
तुम्हारी रातों की नींदे कहाँ लापता है
आफरीन चेहरा निगाहें शराबी
पर बेचैनियाँ हैं अंतस में काफी
सभी जानते हैं तुम्हारे मन की रंजिश
अब तो सुधार लो अपने अंतर्मन की झांकी
सब सोच से ही बदलता है जग में
सोच लो के ये बस सोच की ही खता हैं
रश्क अंतस में पाले हुए हो हजारों
चैन की अहमियत बस तुम्हें ही पता है
चाहते हैं तुम्हें सब! ये तुम्हारा भरम है
मुँह पे बड़ाई करना बहुतों का धरम है
तारीफ सुन के बस फुले जा रहे हो
तारीफ के पुलों के सारे खम्भे वहम हैं
गिर जाते हो पर सम्भलते नहीं हो
ये वाकया होता तो कई मरतबा है
रश्क अंतस में पाले हुए हो हजारों
चैन की अहमियत बस तुम्हें ही पता है
खुद को जलाने का क्या फायदा है
जीवन का ये बस बुरा कायदा है
रश्क को गर अंतस में अब भी पनाह दोगे
तो इक दिन गिरोगे मेरा वायदा है
कहना मानों और अंतर्मन से सम्भलो
मैंने ये बात कही तुमसे कितनी दफ़ा है
रश्क अंतस में पाले हुए हो हजारों
चैन की अहमियत बस तुम्हें ही पता है

-सिद्धार्थ गोरखपुरी
रश्क- ईर्ष्या
अंतस -ह्रदय
आफरीन -मनोहर
रंजिश -दुश्मनी

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