ऑस्कर में भारत का डंका : मंजिल अभी और भी है

ऑस्कर में भारत का डंका : मंजिल अभी और भी है

ऑस्कर में भारत का डंका : मंजिल अभी और भी है
एस.एस.राजमौली की फिल्म आरआरआर के गाने की नाटू...नाटू की जब से ऑस्कर में इंट्री हुई, तब से दो तरह की बातें सुनने में आ रही थीं। एक तो यह कि इस बार भारत को ऑस्कर पक्का है। इस गाने में दम है। फिल्म जिस कथानक पर बनी थी, उसने भी दुनिया का ध्यान अपनी ओर खींचा था। दो मित्र और बगावत की इस फिल्म में इतिहास की घटनाओं को डाला गया था। दूसरी बात यह थी कि ऑस्कर में अपना मेल पड़ने वाला नहीं है। ऑस्कर के बारे में पूरी दुनिया में ये बातें होती रहती हैं कि अवार्ड पाने के लिए लॉबिंग सहित अनेक प्रयास करने पड़ते हैं। जिस तरह दुनिया में तमाम लायक लोगों को नोबेल पुरस्कार नहीं मिला, उसी तरह तमाम डिजर्विंग फिल्मों को ऑस्कर नहीं मिला और तमाम कलाकारों की भी अवहेलना की गई है। हालीवुड में अमुक डायरेक्टरों की मोनोपोली है। वे लोग फिल्म बनाना शुरू करते हैं, उसके पहले से ही इस तरह की बातें करने लगते हैं कि हमारी फिल्म एक नहीं, पांच-सात ऑस्कर अवार्ड तो जीत ही जाएगी। कुछ लोग तो ऐसे भी हैं, वह जो चाहते हैं, ऑस्कर में वही होता है। ऑस्कर अवार्ड तटस्थ और आर्ट को समर्पित लगे, इसके लिए दूसरे देशों की फिल्मों को भी अवार्ड का टुकड़ा दिया जाता है। जो मुख्य अवार्ड हैं, उसे पसंद करने का काइटेरिया इस तरह का होता है, जो कभी किसी की समझ में नहीं आया। द एलीफंट व्हिसस्पर्श को शार्ट डाक्यूमेंटरी फिल्म कैटेगरी का अवार्ड मिला है। हमारे देश को एक साथ दो अवार्ड मिले, इस बात की खुशी तो होती है और यह भी लगता है कि आखिर हमारी फिल्मों को अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर ध्यान दिया जाने लगा है।
हमारे यहां मसाला फिल्मों के साथ-साथ दुनिया की फिल्मों को टक्कर दे सकें, इस तरह की कलात्मक फिल्में आजकल ही नहीं, पहले से भी बनती रही हैं। यह बात अलग है कि दुनिया ने उनकी ओर ध्यान नहीं दिया। फिल्म की दुनिया में खुद को जो वर्ल्ड बेस्ट समझते हैं, वे लोग अपने ही चश्मे से सभी फिल्में देखते हैं। कुछ फिल्में तो उन्हें दिखाई ही नहीं देतीं और कुछ तो समझ में ही नहीं आतीं। हमें तो हमारी फिल्में उन्हें समझानी पड़ती हैं। इतिहास की बात न भी करें तो नाटू...नाटू गाने की बात करें तो वेस्टर्न पिपल ने पहले तो यह समझा था कि या दोनों गे हैं और एक गे कपल के साथ डांस कर रहा है। फिल्म के निर्माताओं को कहना पड़ा था कि आप जो समझ रहे हैं, वैसा नहीं है। यह गाना तो दो दोस्त गा रहे हैं। ये दोनों फिल्म में जो कर रहे हैं, उसका एक निश्चित उद्देश्य है। पूरी फिल्म अपनी जिंदगी के दौरान अद्भुत काम कर गए दो लोगों पर आधारित है और इस कहानी में गुलामी के खिलाफ बगावत है। आंध्र प्रदेश के कुमारम भीम ने आदिवासियों का शोषण करने वाले हैदराबाद के निजाम के खिलाफ अपने अधिकारों के लिए संघर्ष किया था। आदिवासी आज कुमारम भीम की भगवान की तरह पूजा करते हैं। अल्लुरी सीतारामा राजू अंग्रेजों से लड़ने वाले स्वतंत्रता सेनानी थे। महात्मा गांधी ने यंग इंडिया में अल्लुरी सीतारामा की लड़ाई का बखान किया है। आरआरआर फिल्म के कारण ही इन दोनों महान व्यक्तित्व पर देश का ध्यान गया है।
हमारे देश में जो शार्ट फिल्में और डाक्यूमेंटरी बनती हैं, दुनिया की बराबरी में जरा भी कम उतरने वाली नहीं होतीं। फिल्म इंडस्ट्री से जुड़े विशेषज्ञों का कहना है कि फिल्म बनाने की अपेक्षा शार्ट फिल्म या डाक्यूमेंटरी बनाना मुश्किल है। फिल्म में तो आप के पास तीन घंटे होते हैं, शार्ट फिल्म में या डाक्यूमेंटी में तो कुछ ही मिनटों में आप को बहुत कुछ कह देना होता है। अमुक शार्ट फिल्में तो फुलफ्लेस्ड फिल्मों को टक्कर देने वाली होती हैं। अगर डाक्यूमेंटरी में ध्यान न रखा जाए तो दर्शक कुछ ही मिनट में ऊब जाएंगे। देखने वाले को बांधे रखे, इस तरह की डाक्यूमेंटरी बनाना कोई बच्चों का खेल नहीं है। फिल्म में तो स्टोरी को शेप देने और कहानी को जमाने का समय मिल जाता है। शार्ट फिल्म और डाक्यूमेंटरी में तो पहले से ही करामात करनी पड़ती है। अगर ऐसा न हो तो कोई देखेगा ही नहीं। अपने देश के यंगस्टर्स में गजब की क्रिएटिवटी है। अब तो मोबाइल से ही अच्छी शार्ट फिल्में और डाक्यूमेंटरी बन सकती हैं। मोबाइल अब सभी के लिए हाथोंहाथ साधन है। अपने देश के यंगस्टर्स के लिए इतनी ही आवश्यकता है उन्हें इंटरनेशनल प्लेटफार्म मिले। हमारा देश विविधता में एकता का सब से बड़ा उदाहरण है। ये बातें सच हैं, पर इसी के साथ यह भी हकीकत है कि देश के किसी किसी न कोने में इस तरह का निर्माण होता रहता है, जो वर्ल्ड बेस्ट होता है, पर उसकी ओर किसी का ध्यान नहीं जाता। हमारी फिल्म इंडस्ट्री बालीवुड के आसपास ही घूमती रहती है। साउथ या किसी राज्य की फिल्म हिट हो जाती है तो न जाने कितने लोग आमने-सामने आ जाते हैं और साउथ वर्सेस बालीवुड की बातें करने लगते हैं। सच्ची बात तो यह है कि पूरे देश की फिल्में इंडियन सिनेमा के रूप में देखना और दुनिया के सामने रखना चाहिए। हमारा संघर्ष अंदर ही अंदर नहीं, हमारी स्पर्धा इंटरनेशनल फिल्म से होनी चाहिए।
हमारी फिल्म इंडस्ट्री दुनिया में सब से बड़ी है। हमारे देश में हर साल एक हजार से अधिक फिल्में बनती हैं। हिसाब लगाया जाए तो यह कहा जा सकता है कि हमारे देश में रोजाना 3 फिल्में बनती हैं। लंदन में ल्युमियर बदर्स ने 1895 में चलचित्र की शुरुआत की थी। उसके छह महीने में फिल्म भारत पहुंच गई थी। इसका कारण यह था कि उस समय भारत में अंग्रेजों का राज था। इसलिए भारत में फिल्म लाना उनके लिए आसान हो गया था। एक सदी से भी अधिक समय में फिल्म के सफर के दौरान भारतीय फिल्म जगत ने काफी उतार-चढ़ाव देखा है। अपनी फिल्मों के बारे में यह भी कहना पड़ता है कि हमारे यहां फिल्में मात्र मनोरंजन का साधन बन कर रह गई हैं। जबकि दुनिया इन्हें एंटरटेनमेंट नहीं, कम्युनिकेशन का साधन मानती है। देश के हिस्से में दो ऑस्कर आए हैं। ऐसे में अन्य सभी बातों को छोड़ कर हमें यह उम्मीद करनी चाहिए कि देश की फिल्म इंडस्ट्री का आज दुनिया में डंका बजा है और आगे भी इससे भी जोरों से बजता रहेगा।

About author 

वीरेन्द्र बहादुर सिंह जेड-436ए सेक्टर-12, नोएडा-201301 (उ0प्र0) मो-8368681336
वीरेन्द्र बहादुर सिंह
जेड-436ए सेक्टर-12,
नोएडा-201301 (उ0प्र0)
मो-8368681336
Next Post Previous Post
No Comment
Add Comment
comment url